Atal Bihari Vajpayee Poems

Discussion in 'Poems and Poets' started by manish.pawar, Jan 23, 2014.

  1. manish.pawar

    manish.pawar New Member

    Collection of Hindi Poems by Indian Prime minister Atal Bihari Vajpayee

    कदम मिला कर चलना होगा


    बाधाएँ आती हैं आएँ
    घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
    पावों के नीचे अंगारे,
    सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
    निज हाथों में हँसते-हँसते,
    आग लगाकर जलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।


    हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
    अगर असंख्यक बलिदानों में,
    उद्यानों में, वीरानों में,
    अपमानों में, सम्मानों में,
    उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
    पीड़ाओं में पलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।
    उजियारे में, अंधकार में,
    कल कहार में, बीच धार में,
    घोर घृणा में, पूत प्यार में,
    क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
    जीवन के शत-शत आकर्षक,
    अरमानों को ढलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।

    सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
    प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
    सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
    असफल, सफल समान मनोरथ,
    सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
    पावस बनकर ढ़लना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।


    कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
    प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
    नीरवता से मुखरित मधुबन,
    परहित अर्पित अपना तन-मन,
    जीवन को शत-शत आहुति में,
    जलना होगा, गलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।
    - अटल बिहारी वाजपेयी

    आओ फिर से दिया जलाएँ

    भरी दुपहरी में अंधियारा
    सूरज परछाई से हारा
    अंतरतम का नेह निचोड़ें-
    बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
    आओ फिर से दिया जलाएँ

    हम पड़ाव को समझे मंज़िल
    लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
    वतर्मान के मोहजाल में-
    आने वाला कल न भुलाएँ।
    आओ फिर से दिया जलाएँ।

    आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
    अपनों के विघ्नों ने घेरा
    अंतिम जय का वज़्र बनाने-
    नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
    आओ फिर से दिया जलाएँ

    टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

    सत्य का संघर्ष सत्ता से
    न्याय लड़ता निरंकुशता से
    अंधेरे ने दी चुनौती है
    किरण अंतिम अस्त होती है

    दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
    वज्र टूटे या उठे भूकंप
    यह बराबर का नहीं है युद्ध
    हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
    हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
    और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

    किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
    अंगद ने बढ़ाया चरण
    प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
    समर्पण की माँग अस्वीकार

    दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
    टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
    पुनः चमकेगा दिनकर

    आज़ादी का दिन मना,
    नई ग़ुलामी बीच;
    सूखी धरती, सूना अंबर,
    मन-आंगन में कीच;
    मन-आंगम में कीच,
    कमल सारे मुरझाए;
    एक-एक कर बुझे दीप,
    अंधियारे छाए;
    कह क़ैदी कबिराय
    न अपना छोटा जी कर;
    चीर निशा का वक्ष
    पुनः चमकेगा दिनकर।

    क्षमा याचना

    क्षमा करो बापू! तुम हमको,
    बचन भंग के हम अपराधी,
    राजघाट को किया अपावन,
    मंज़िल भूले, यात्रा आधी।

    जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,
    टूटे सपनों को जोड़ेंगे।
    चिताभस्म की चिंगारी से,
    अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।

    स्वतंत्रता दिवस की पुकार

    पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है।
    सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

    जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।
    वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥

    कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।
    उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥

    हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
    तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

    इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
    इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥

    भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
    सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥

    लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
    पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

    बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
    कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

    दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
    गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥

    उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
    जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥

    Atal Bihari Vajpayee Poems in Hindi
    अपने ही मन से कुछ बोलें

    क्या खोया, क्या पाया जग में
    मिलते और बिछुड़ते मग में
    मुझे किसी से नहीं शिकायत
    यद्यपि छला गया पग-पग में
    एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!

    पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
    जीवन एक अनन्त कहानी
    पर तन की अपनी सीमाएँ
    यद्यपि सौ शरदों की वाणी
    इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!

    जन्म-मरण अविरत फेरा
    जीवन बंजारों का डेरा
    आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
    कौन जानता किधर सवेरा
    अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
    अपने ही मन से कुछ बोलें!

    मौत से ठन गई!

    जूझने का मेरा इरादा न था,
    मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

    रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
    यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

    मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
    ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

    मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
    लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

    तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
    सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

    मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
    शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

    बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
    दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

    प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
    न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

    हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
    आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

    आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
    नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

    पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
    देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

    मौत से ठन गई।
     


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